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विज्ञान और कथा साहित्य
मुझे अक्सर हिंदी साहित्य में वैज्ञानिक तार्किकता और विज्ञान फंतासी का अभाव महसूस होता है। कुछ लेखक हैं, जो आपस में मिलते नहीं चर्चा नहीं करते, कोई गोष्ठी नहीं होती। हाँ आईसेक्ट विश्वविद्यालय के सौजन्य से अब एक पत्रिका आने लगी है, 'इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए' जिसमें वे कहानियों को जगह देते हैं। वातायन यूके ने एक संगोष्ठी कारवाई थी।
मैं याद करूं तो राहुल सांकृत्यायन ने 1924 में ‘बाइसवीं सदी’ नाम से अच्छी किताब लिखी थी। मुझे नहीं मालूम कितनों ने पढ़ी।
इस पुस्तक में राहुल जी ने एक परिकल्पना की है जिसके अनुसार आज से दो सौ वर्षों बाद अर्थात् बाईसवीं सदी तक संपूर्ण वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन होकर धर्मरहित समाज की स्थापना होगी, विज्ञान की उन्नति अपनी चरम सीमा पर होगी। जनसंख्या वृद्धि, पर्यावरण, अशिक्षा आदि की वर्तमान समस्यायें नहीं रहेंगी। इसी प्रकार फलों, फूलों एवम् अन्नों की खेती सहज, सुलभ और अधिक उत्पादन देने वाली होगी। विभिन्न भाषाओं के स्थान पर मात्र एक सर्वग्राहय भाषा, सभी चीजों पर राष्ट्र का स्वामित्व होगा। पुलिस के स्थान पर सेवक, जाति उन्मूलन तथा ‘एक वर्ण मिदं सर्वम’ को स्थाइत्व स्वरूप मिलेगा। उन्हीं के शब्दों में ‘संसार का उपकार अनेक भाषाओं को सुदृढ़ करने में नहीं हैं बल्कि सबके आधिपत्य को उठाकर एक को स्वीकार करने में हैं।’
हाँलांकि इसकी विधा पूरी तरह से कथासाहित्य नहीं थी। मगर एक परिकल्पना थी जो आज साकार दिखती है। डॉ. सम्पूर्णानंद ने भी 1953 में ‘पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल’ पुस्तक लिखी थी। और लेखकों से आह्वान किया था साइंस फिक्शन लिखने का। वे लिखते हैं
“ प्रसिद्धि यह है कि मेरी लेखनी राजनीति और दर्शन जैगे गम्भीर विषयो पर ही उठती है। अब मैं कहानी लिखने बैठा हूँ, इससे बहुतो को आश्चर्य होगा। इस कहानी का छोटा-सा इतिहास है। उस इतिहास के ही कारण यह भूमिका लिखी जा रही है, अन्यथा ऐसी पुस्तकों मे भूमिका के लिए स्थान नहीं होता। मैं कई मित्रो से यह कहता रहा हूँ कि हिन्दी में 'सायंस फिक्शन' (वैज्ञानिक कहानी) लिखने का अभी चलन नहीं है और यह बहुत बड़ी कमी है। 'सायंस फिक्शन' भी दो प्रकार का होता है। साधारण कथानक रखकर उसमें कही बिजली का जिक्र कर दिया जाय या घटनास्थल पृथिवी से उठाकर किसी अन्य ग्रह पर डाल दिया जाय तो यह वास्तविक वैज्ञानिक कहानी नहीं हुई। इस विषय के जो अच्छे लेखक है उनका उद्देश्य विज्ञान का प्रचार होता है। कहानी तो बहाना मात्र होती है। इसलिए कथानक बहुत थोडा होता है। लेखक कल्पना से काम तो लेता है परन्तु वैध सीमाओ के भीतर। उन्ही बातो का चर्चा करता है जो या तो आज विज्ञान के प्रयोग में आ चुकी है या विज्ञान की प्रर्गात को देखते हुए सौ-दो-सौ वर्षों में व्यवहार में आ जायेंगी। जिसको विज्ञान सम्भव मानने लगा है उसका ही उल्लेख किया जाता है। ऐसे वाडमय की रचना के मार्ग में कई गहन कठिनाइयों उपस्थित होती है। उसे रोचक बनाए रखना पहली है।“
यह किताब एक उपन्यास है जिसमें खगोल शास्त्र की व्याख्या और वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उस समय के युवाओं की जागती दृष्टि है।
आगे जाकर आचार्य चतुरसेन ने भी एक विज्ञान उपन्यास ‘खग्रास’ लिखा था और लेखकों का ध्यान इस ओर मोड़ने का प्रयास किया था कि विज्ञान और साहित्य को साथ लाया जा सकता है। उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है - "जिस गति से विश्व वर्तमान में आगे बढ रहा है, उसे देखते हुए यही उचित है कि साहित्य मे प्राविधिक और वैज्ञानिक पुट अधिक रक्खा जाय । इसी विचार से मैं अपना यह 'खग्रास' आपको भेट करता हूँ।“
इस उपन्यास की भूमिका ही कमाल की है। वे रूस के स्पूतनिक छोड़ने की बात कर रहे हैं, लुई पाश्चर की बात कर रहे हैं, आइसोटोप्स की बात कर रहे हैं, रेडियो थैरेपी, गामा रेज़ के आविष्कार की बात कर रहे हैं यानि मेरे जन्म से भी सात साल पहले लिखा गया है यह उपन्यास, उन्नीस सौ साठ में। और देखिए ना हम इतने बड़े उपन्यासकार की इस वैज्ञानिक दृष्टि को सहेज कर हिन्दी साहित्य में विज्ञान कथा साहित्य की धारा सफलता से नहीं चला पाए।
जब हम बच्चे थे रॉबिन कुक की किताबें मेरी बहनें पढ़ा करती थीं, कोमा, फीवर, ब्रेन, इबोला….. लेकिन हिन्दी में सन्नाटा था। मेरी उम्र राजन-इकबाल और कॉमिक्स पढ़ने की थी तो बाल पॉकेट बुक्स में जरूर थोड़ साइंस फिक्शन कहीं कहीं आ जाता था कि जब किसी भूत और थ्रिलर कथा का अंत होता वह किसी वैज्ञानिक तर्क से होता। मगर हिन्दी जगत जगाने के बावजूद सो गया था।
लेकिन हर पीढ़ी में कुछ विज्ञान दीवाने होते हैं। वे रहेंगे।
1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की ‘फाइव वीक्स इन ए बैलून’ का ‘बैलून विहार’ नामक अनुवाद किया. सरस्वती मे स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ‘आश्चर्यजनक घंटी’और बाद में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ‘चंद्र लोक की यात्रा प्रकाशित होने का उल्लेख है. बनारसीदास चतुर्वेदी ने भी विज्ञान कथाएं लिखीं। ‘सरस्वती’और ‘विशाल भारत पत्रिकाओं ने यह भूमिका निभाई कि विज्ञान कथाओं को खूब छापा। सन् 1949 में यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ ने ‘विशाल भारत’ में आंख प्रतिरोपण पर ‘चक्षुदान’उपन्यास धारावाहिक लिखा.
हिंदी विज्ञान-कथाओं में चिकित्सक डॉ. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा. उन्होंने ‘सरस्वती’ और ‘विशाल भारत’ में विज्ञान-कथाएं लिखीं. 1960 के दशक में उन्होंने ‘विज्ञान लोक’ तथा ‘विज्ञान जगत’ में नियमित कथाएं लिखीं. उनका उपन्यास ‘अपराध का पुरस्कार’ 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ. उनके प्रमुख कथा-संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु आदि.
रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं. 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युंजयी प्रकाशित हुआ. उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिंदी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया. डॉ. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय विज्ञान कथाएं लिखी हैं. जिन्हें खोज कर पढ़ना चाहिए। जितेंद्र भाटिया जी, श्री देवेंद्र मेवाड़ी जिनकी वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी. उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ‘भविष्य’ नामक कथा लिखी. शैलेन्द्र चौहान विज्ञान कथाओं में एक उल्लेखनीय नाम हैं, स्व.राजेश जैन जी का विज्ञान कथा साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हमारे गत वर्ष के साहित्य अकादमी अवार्ड विजेता संजीव उनका उपन्यास रह गई दिशाएं उस पार ‘क्लोनिंग और उसके डिजास्टर्स’ पर एक अच्छा उपन्यास है। और मैंने शिज़ोफ्रेनिया पर एक उपन्यास लिखा है ‘स्वपनपाश’ जो इसी विधा में आएगा। मेरी एक कहानी है ‘समुद्री घोडा’ जो भविष्य में होने वाले ऑर्गन ट्रांसप्लांट और मेल प्रेग्नेंसी पर एक फांतासी साइंस फिक्शन है।
यह ब्रीफ़ इतिहास जो मैंने आपको बताया वह हिन्दी साहित्य के वृहत इतिहास में एक बूंद भर है। और बहुत लोकप्रिय नहीं है। क्योंकि इसमें हिन्दी पाठक की अवैज्ञानिक दृष्टि के साथ, पत्रिकाओं के रुझान, सेमिनारों में चर्चा में कमी के साथ, प्रकाशकों के किताब के प्रचार और सायन्स फिक्शन मे खुद में कहीं ‘रोचकता’ की कमी भी है।
सायन्स फिक्शन में क्या कमी रह जाती है। मुझे लगता है हम तकनीकी शब्दों के हिंदीकरण के चलते इसे क्लिष्ट कर देते हैं। विज्ञान-कथाएं ऐसी हों जो विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत कर लें। लेकिन यहाँ एक बारीक लाइन है – हम बहुत बेसिक चीजों का विवरण देने लगें तब भी यह अटपटा हो जाएगा। कि हम क्लोनिंग् की व्याख्या कर दें या ऑक्सईडाइजेशन की परिभाषा देने लगें। आजकल गूगल है पहले भी शब्दकोश होते ही थे। इसलिए हम थोडा सरल और रोचक हों थोड़ा पाठक अपना माद्दा बढ़ाए। जिज्ञासु हो।
इस अंक में हम एच.जी. वेल्स का प्रकाश शुक्ल जी द्वारा अनूदित विज्ञान फंतासी उपन्यास ' एक अदृश्य आदमी' प्रकाशित कर रहे हैं। ब्रायन एल्डिस ने वेल्स को "विज्ञान कथाओं का शेक्सपियर" कहा, जबकि चार्ल्स फोर्ट ने उन्हें "जंगली प्रतिभा" कहा।
अक्टूबर माह में हम आपको अनवरत नई रचनाएं इस पोर्टल पर उपलब्ध करवाएंगे। पढ़ते रहें .... सीखते रहे.... लिखते रहें .।
मनीषा कुलश्रेष्ठ
संपादक
hindinest@gmail.com
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जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
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